शनिवार, 24 मार्च 2012

जग के कोलाहल से दूर .........


सुबह से शाम 
चलते-चलते
जब मन
थक जाता है
जग की राहों पर,
सुबह से शाम 
कहते सुनते
उब जाता है
जब मन 
जग की बातों से,
बोझ से शब्द जब
भारी-भारी से 
लगने लगते है
सर चकराने लगता है
तब-तब
जग के कोलाहल से
दूर ....
शब्द,संवादों के
पार
अंतर्लीन हो कर
मौन के गहरे
अतल में डूब जाना
ऐसे  ही लगता है 
जैसे ....
दिन भर का 
थका-हारा कोई 
छोटा सा बच्चा
अपनी माँ की 
गोद में आकर 
चुप-चाप सो जाता है
 सुकून से !
 

रविवार, 4 मार्च 2012

गोकुल में कान्हा खेले रंग .........


मौज,मस्ती,रंग,तरंग और हुडदंग लिये होली हर साल की तरह हमारे द्वार पर दस्तक दे रही है ! ठंडी-ठंडी हवावों की सिहरन सूरज की तेज होती किरणों से बौखलाकर बर्फीले पहाड़ों के आँचल में छुपने का प्रयास कर रही है ! बाग़,बगीचों में कोयल की मीठी कुहू-कुहू सुनाई देने लगी है ! आम्र वृक्षों पर बौराई मंजरियाँ अनोखी सुगंध हवावों में भर रही है ! दूर-दूर तक सरसों की, पके हुये गेहूं की लहलहाती खेतियाँ मानों किसानों को कह रही है ...हमें काटकर बिन कर धन, धान्य से अपनी भंडारे भर लो ! बदलते मौसम के साथ बदलते रंगों के साथ चारों ओर नव जीवन का नव विकास दिखाई दे रहा है ! जाड़े की विदाई और ग्रीष्म का आगमन, नर्म-गर्म मौसम में रंगों का यह त्यौहार, बच्चे,बड़े सबके मन को भाने लगा है ! बच्चों की टोलियाँ हाथों में रंगों से भरी पिचकारियाँ लिये सड़कों पर निकल आई है ! किसी के हाथ में रंग तो किसी के हाथ में अबीर-गुलाल, कोई शरारती प्रियतम अपनी प्रेयसी को रंगों से भिगोने अपने पीठ पीछे हाथ में रंग छिपाए मुस्कुराने लगा है ! तभी तो गोकुल में अपने बाल-सखाओं के साथ कृष्ण निकल पड़े है रंग बरसाने .........राधा और उसकी सखियों के साथ रंग खेलने .........!!

रंग बसंती बहार आयी,
खुशियों की फुहार लायी !
   होली के रंगों में !!
   गोपियों के संग 
गोकुल में कान्हा खेले रंग 
सखी कैसे जाओगी घर  !!
 झंन -झन झाँजर बाजे 
अबीर गुलाल के थाल सजे 
  रंगों का त्यौहार आया 
  खुशियाँ अपार लाया !!
    बाँसुरी की धुन में,
    गोपालों के संग,
गोकुल में कान्हा खेले रंग 
सखी कैसे जाओगी घर !!
भर-भर पिचकारी से रंग छलका 
हास-परिहास का सौरभ बिखरा 
     रंग उड़े, गुलाल उड़े,
   मोहिनी सूरत चित्तचोर,
     हाथ रोक रंग डाले,
  भीगी चोली, भीगी चुनरी,
राधा रानी कैसे जाओगी घर 
गोकुल में कान्हा खेले रंग !!

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

चाहता है मन ........


चाहता है मन 
फिके न हो यह 
जीवन के इन्द्रधनुषी 
रंग कभी भी,
देते रहे सदा
चटक,गहरे पन
 का अहसास 
किन्तु कहाँ ऐसा 
संभव होता है 
प्रकृति से संघर्ष 
मन का व्यर्थ हो 
जाता है !
जो रंग कल थे 
आज कहाँ ?
आज के कल 
कहाँ ठहरेंगे 
हर बसंत के बाद 
पतझर आता है 
कल रो-रो कर 
कहा किसी ने 
दिल न लगाना 
किसीसे भी 
प्रित के रंग भी 
अक्सर समय के
साथ फिके हो 
जाते है !