शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2007

जीवन को सफ़ल बनाऊ कैसे

तू आज बता दे फूल मुझे
मैं तुझ सी खिल पाऊं कैसे
तेरे जीवन पथ पर बिछे हैं कांटे
फिर भी उर में मुस्कान समेटे
पल-पल हवा के झोंके से,
खुशबू जग में बिखराता है तू
तुझ जैसी खुशबू बिखराकर
जीवन को महकाऊ कैसे
में तुझ सी खिल पाऊं कैसे ?
सुबह को खिलता साँझ मुरझाता
मंदिर मजार पर बलिदान चढ़ता
कितना सफ़ल है जीवन तेरा
मुझको खलती मेरी नश्वरता
तुझ जैसा बलिदान चढा कर
जीवन को सफ़ल बनाऊ कैसे ?
मै तुझ सी खिल पाऊं कैसे ?

कौन नींद से मुझे जगाता

अक्सर मै सोचती हूँ
फिर भी मन है कि समझ न पाता
साँझ सवेरे नील गगन में,
अनगनित झिलमिल दीप
कौन जलाता कौन बुझाता
भोर से पहले पंछी जागते
पत्ते -पत्ते पर ,
कौन मोती बिखराता ?
सवेरे -सवेरे फूल खिल जाते
हवावोंमे सौरभ भर जाता
पल में भौंरों को
कौन संदेस पहुँचाता ?
कोयल के सुरीले कंठ से गाकर
कौन नींद से मुझे जगाता ?

आई भोर

पेड पौधे जागें
पंछियों के मीठे
गीत जागें
खिली कलियाँ
फूल महके,
कलि कुसुमों पर
भौंरे इतराये
नए स्वप्न
नयी आशा,
आलस त्याग कर
जागी उषा,
चहु ओर मधुर शोर,
अब तो जागो मन
श्वेत परिधान
पहन कर
स्वागत करने,
बडे सवेरे
आई भोर !